गालिब का जन्म आगरा शहर में २७/१२/१७९७ हुआ था ।गालिब के पिता अब्दुल्लाह बेग खां अलवर रियासत में नौकरी करते थे जहाँ १८०२ में मृत्यु होगी तो इनका पालन पोषण चाचा नसर उल्लाह बेग ने किया ।गालिब की माता का नाम इज्जतुन्निसा बेगम.। १९अगस्त १८१० मे गालिब का विवाह दिल्ली के निवासी इलाही बख्श खां "मारूफ "की छोटी बेटी उमराव से होगया ।गालिब का पुरा नाम मुहम्मद असदुल्लाह बेग खां था। गालिब उप नाम के अलावा गालिब के अन्य नाम भी थे ।सन् १८१२ जब ये दिल्ली आगये नौशा( दूल्हा) कहलाये तो मिर्जा नौशा कहाँ जाने लगा ।
१८०७ मे जब शायरी करने लगे तो असद उपनाम रखा।१८१६ में इन्होंने अपना सबसे प्रसिद्ध उपनाम (तखल्लुस) गालिब रखा।
फारसी में दीवाना का प्रकाशन २९अप्रैल १८३५ को सम्पादित हुआ और पहला संस्करण १८४५ मे प्रकाशित हुआ ।४जुलाई १८५० को तैमूरी खानदान का इतिहास लिखने के लिये नियुक्त किया गा और नज्मुद्दौला, दबीरुलमुल्क, ऩिजाम जंग का खिताब पाया । १८६२ में इनकी सभी फारसी रचनाओं का प्रकाशन किया गया जो पंज आहंग, मेहरे-निमरोज़ और दस्तम्बू नाम से थी। १८५६ में कादिर नामा लिखा जो इन्होंने ने अपने पोतॊं को उर्दू पढाने के लिए लिखा था।
गालिब को बहादुर शाह ज़फर २ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया था। गालिब अग्रेज़ी के तरफादार होने का आरोप उनकी किताब. दस्तंबू के आधार पर लगाया जाता है, पर यह गालिब की मजबूरी हो क्योंकि गालिब की बीबी के सारे गहने क्रान्तिकारियों के सेना के कुछ सिपाहियों के द्वारा लूट लिया गया था गालिब को ब्रिटिश सरकार. से मिलनेवाली मदद आवश्यक थी। इसके अलावा उनके मन मे यह धारणा थी कि अग्रेज़ ही भारत मे सच्चा न्याय कर सकते है। दस्तंबू नामक किताब की शुरुआत हम्द यानी ईश प्रार्थना से हुई है और इसके बाद ग़ालिब ने अपनी रूदाद लिखी है. वह लिखते हैं- मैं इस किताब में जिन शब्दों के मोती बिखेर रहा हूं, पाठकगण उनसे अनुमान लगा सकते हैं कि मैं बचपन से ही अंग्रेज़ों का नमक खाता चला आ रहा हूं. दूसरे शब्दों में कहना चाहिए कि जिस दिन से मेरे दांत निकले हैं, तब से आज तक इन विश्वविजेताओं ने ही मेरे मुंह तक रोटी पहुंचाई है. ज़ाहिर है कि ग़ालिब ने जिस अंग्रेज़ सरकार का नमक खाया था, वह उनकी नज़र में बेहद इंसाफ़ पसंद और मासूम सरकार थी. हालांकि ग़ालिब का रिश्ता मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र से भी था और ज़फ़र की शायरी के वह उस्ताद थे. शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने उन्हें दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद्दौला के ख़िताब से नवाज़ा. बाद में उन्हें मिर्ज़ा नोशा के ख़िताब से भी सम्मानित किया गया. वह बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में महत्वपूर्ण दरबारी थे. उन्हें बहादुर शाह ज़फ़र के बड़े बेटे फ़क़रुद्दीन मिर्ज़ा का शिक्षक तैनात किया गया. इसके अलावा वह मुगल दरबार के शाही इतिहासकार भी रहे. इसके बावजूद वह बादशाह से मुतमईन नहीं थे. वे लिखते हैं- मैं हफ्ते में दो बार बादशाह के महल में जाता था और अगर उसकी इच्छा होती, तो कुछ समय वहां बैठता था, अन्यथा बादशाह के व्यस्त होने की वजह से थोड़ी देर में ही दीवान-ए-ख़ास से उठकर अपने घर की ओर चल देता था. इस बीच जांची हुई रचनाओं को या तो ख़ुद वहां पहुंचा देता या बादशाह के दूतों को दे देता था, ताकि वे बादशाह तक पहुंचा दें. बस, मेरा इतना ही काम था और दरबार से मेरा इतना ही नाता था. हालांकि यह छोटा-सा सम्मान, मानसिक और शारीरिक दृष्टि से आरामदायक और दरबारी झगड़ों से दूर था, लेकिन आर्थिक दृष्टि से सुखप्रद नहीं था. उस पर भी ग्रहों का चक्कर मेरे इस छोटे-से सम्मान को मिट्टी में मिला देने पर तुला हुआ ।मिर्ज़ा की डायरी ‘दस्तबूं’ एक चश्मदीद शख़्स का किया हुआ कलमबंद बयान है, इसलिए ग़दर के दरम्यान दिल्ली की हालत का बयान उन्हीं आँखों से देखिए, ‘पूरा शहर उस वक्त मुसलमानों से खाली हो गया.’ मिर्ज़ा के हिंदू दोस्तों के अलावा जो उनके पास बराबर आते रहते थे और हर तरह से वे उनका दुःख दूर करते थे. कोई उनका गमख़्वार नहीं था. ऐसे ही वक़्त में उनके छोटे भाई का इंतकाल हुआ था, दिल्ली के हालात क्या थे, ग़ालिब की ही जुबानी सुनिए, ‘ऐसा लगता है जैसे मज़दूर और ज़मीन खोदने वाले इस शहर में रहते ही नहीं थे. हिंदू लोग मृतक के शरीर को नदी के किनारे जला सकते थे, परंतु मुसलमान तो बाहर निकलने की हिम्मत भी नहीं कर सकते. भले ही वे सामूहिक रूप से या दो-तीन व्यक्तियों के सहारे कंधों पर मुर्दा निकालें, उन्हें इसकी अनुमति नहीं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि वे किस प्रकार अपने मुर्दों को नगर से बाहर ले जाकर मिट्टी दें?’ इसी स्थिति के कारण ग़ालिब ने अपने भाई को बेशिनाख्त लाश की तरह मिट्टी दी, ‘पटियाला के एक सिपाही को आगे-आगे लेकर दो नौकरों की सहायता से हम लाश को बाहर लाए. उन्होंने लाश को धोया और मेरे घर से कपड़ों के दो-तीन टुकड़े लेकर लाश को लपेटा. फिर घर के पास वाली मस्ज़िद की ज़मीन खोदकर लाश को दफ़्न किया और वापस आ गए.।
जो भी गालिब अपनीशायरी के लियें अनन्त काल तक याद किये जायेंगे ।इस. महान फऩकार की मृत्यु १५ फरवरी १८६९ को हो गयीं।
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