वीर रस –युद्ध,धर्म,दान या करूणा के प्रसंगों में किसी वीर नायक के द्वारा की गयी चेष्टा वीर रस है |इसका स्थायी भावउत्त्साह है |वीर रस के चार भेद है युद्धवीर,दानवीर धर्मवीर,दयावीर
युद्धवीर-मैं सत्य कहता हूँ सखे !सुकुमार मत जानों मुझे |
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मनो मुझे ||
हे सारथे ?हैं द्रोण क्या ?आवें स्वयं देवेन्द्र भी |
वे भी न जीतेंगे समर में आज क्या मुझेसे कभी ||
मानव समाज में अरूण पड़ा ,जल जंतु बीच हो वरुण पड़ा |
इस तरह भभकता राणा था ,मनो सर्पों में गरुड़ पड़ा |
भीषम भयानक पुकारयो रणभूमि आनि,
छाई छिति छ्त्रिनि की गीति उठि जाएगी |
कहै रतनाकर रूधिर सौं रूधेगीधरा ,
लोथनि पै लोथनि की भिति उठि जाएगी |
जीति उठि जाइगी अजीत्त पंडू-पूतनि की,
भूप दुरजोधन की भीति उठि जाइगी |
तनकर भाला यूँ बोल उठा
राणा!मुझको विश्राम न दे |
मुझेको वैरी से हृदय-क्षोभ
तू तनिक मुझे आराम न दे ||
दानवीर—हाथ गह्यों प्रभु को कमला कहै-नाथ कहा तुमने चित्तधारी
?तंदुल खाई मुठी दूइ दीन कियो तुमने दुई लोक बिहारी |
खाय मुठी तिसरी अब नाथ,कहा निज वास की आस बिसारी ?
रंकहि आप समान कियो अब चाहत आपहि होय भिखारी |
दयावीर- स्वजाति की देख अतीव दुर्दशा विगर्हणा देख मनुष्यमात्र की
विचार के प्राणीसमूह कष्ट को
हुए समुत्तेजित वीर केशरी ||हितैषणा से निज जन्मभूमि की
अपार आवेश ब्रजेश को हुआ |बनी महा बंक गठी हुई भवे
नितान्त विस्फारित नेत्र हो गये ||
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