महर्षि वेद व्यास कहते है कि धर्म युक्त आचरण से हमें
अर्थ,काम और मोक्ष को प्राप्त करना चहिये |क्योंकि अगर आप का आचरण धर्म से युक्त
नहीं है तो अधर्म से कमाया गया अर्थ और प्राप्त
काम पतन का कारण है |अगर काम में धर्म नहीं है तो विनाशकारी होता है आज जो परिवार टूट रहे है उसका कारण केवल यह है कि हम धर्म युक्त आचरण से दूर हो गये है |
यां चिन्तयामि सततं मायि सा विरक्ता,
साप्यन्य मिच्छ्ति जनं म जानोअन्यमक्त||
अस्म्स्कृते च परीतुष्यति काचिदन्या,
धिक्ताम् च तं च मदनम् च इमाम च माम् च ||
मैं जिसका चिंतन करता हूँ वह
मुझ से विरक्त होकर किसी दुसरे(पुरूष) की इच्छा करती है. और वह पुरूष किसी दूसरी
स्त्री पर आसक्त है और वह स्त्री हम से प्रसन्न है |इसलिए तीनों को धिक्कार है और
मुझे धिक्कार है जो इस सांसारिक झंझट में पड़ा हूँ |कामदेव को तो और भी धिक्कार है
जो सब को नचा रहा है |
इन पक्तियों के रचनाकार
महाराज भरतरी की जीवन कथा को पढ़ना और समझना
चाहियें | महाराज भरतरी उज्जैन के महाराज और विक्रमादित्य के बड़े भाई थे|इनकी तीन
रनिया थी जिसमे सबसे छोटी रानी का नाम पिंगला था जिससे महाराज को अत्यधिक स्नेह
था, जबकि रानी को नगर कोतवाल से स्नेह था |
एक दिन महाराज के दरबार में एक सन्यासी आते है और एक चमत्कारी फल देकर चले जाते है । राजा ने फल लेकर
सोचा कि फल खाकर जीवन भर जवानी और सुंदरता बनी रहेगी पर उनकी प्रिय रानीबूढी हो
जाएगी तो अच्छा नहीं होगा । यह सोचकर राजा
ने पिंगला को वह फल दे दिया।
जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो
रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी मनोकामना की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी
फल कोतवाल को दे दिया।
कोतवाल
महोदय एक नगर गणिका से प्रेम करते थे इस कारण उसने चमत्कारी फल उसे
दे दिया। जिससे नगर गणिका सदैव जवान और
सुंदर बनी रहे। नगर गणिका का स्नेह राजा से था उसने वह फल राजा को दिया |फल देखते
ही राजा को झटका लगा और उसी समय राज्य का त्याग कर दिया |जंगल में जाकर एक गुफा
में तपस्या की और भरतरी शतक की रचना की | भरतरी शतक के तीन खंड है निति
शतक,श्रृंगार शतक और वौराग्य शतक |
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