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शनिवार, मई 02, 2020

अद्भुत रस


आश्चर्य जनक चकित कर देने दृश्यों के कारण वर्णन उपन्न विस्मय-भाव की परिपक्वावस्था को अद्भुत रस कहते है |

हरि ने भीषण हुंकार किया
 अपना स्वरुप विस्तार किया |डगमग-डगमग दिग्गज डोले
भगवान कुपित हो कर बोले 
जंजीर बढ़ा कर साध मुझे
हाँ हाँ दुर्योधन !बांध मुझे
यह देख गगन मुझ में लय है
यह देख पवन मुझे में लय है
मुझे में विलीन झंकार सकल
मुझे में लय है संसार सकल


देख यशोदा शिशु के मुख में, सकल विश्व की माया |
क्षणभर को वह बनी अचेतन, हिल न सकी कोमल काया ||


हो पूर्ण जब तक पार्थ प्रति प्रभु का कथन ऊपर कहा ||
तब तक महा अद्भुत हुआ यह एक कौतुक सा,अहा |मार्त्तंड अस्ताचल निकट घनमुक्त






शुक्रवार, मई 01, 2020

वीभत्स रस


घृणा उत्पन्न करने वाले अमांगलिक,अश्लील दृश्यों को देख कर दृश्यों के प्रति जुगुप्सा का  भाव परिपुष्ट हो कर वीभत्स रस उत्पन्न करता है |

सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत |
खीचत जिभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर धारत ||
गीध जांघि को खोदि-खोदि कै मांस उघारत |
स्वान अंगुरिन काटी-काटी कै खात  विदारत ||


ओझरी की झोरी काँधे,आंतनि की सेल्ही बांधें,
मुंड के कमण्डलु,खपर किये कोरि कै
जोगिनी झुदुंग झुण्ड-झुण्ड बनी तापसी सी
 तीर-तीर बैठी सो समर सरि खोरि कै||
सोनित सो सानि सानि गूदा खात सतुआ से
प्रेत एक पियत बहोरि घोरि-घोरि कै |
तुलसी बैताल भूत साथ लिए भूतनाथ
  हेरि हेरि हँसत है हाथ- हार जोरि कै |


आँखे निकाल उड़ जाते,क्षण भर उड़ क्र आ जाते |
शव जीभ खीचकर कौवे,चुभला-चुभला कर खाते|
भोजन में श्वान लगे मुरदे थे भू पर लेटे |
खा मांस चाट लेते थे,चटनी सम बहते बेटे |




Bhayanak Ras/भयानक रस


Bhayanak Ras/भयानक रस 

इस में भयोत्पादक विषयों का वर्णन होता है |इसका स्थाई भाव भय है |किसी भयानक दृश्य को देखने के कारण  उपन्न भय जब अपनी परिपक्वावस्था को प्राप्त करता है यो उसे भयानक रस कहते है |

एक ओर अजगरहिं लखि,एक ओर मृगराय|
विकल बटोही बीच ही,परयो मूरछा खाय ||

बालधी विसाल,विकराल,ज्वाला-जाल मानौ ,लंक लीलिबों को काल रसना पसारी है |
कैंधों व्योम बिध्यिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,वीर रस वीर तरवारि सी उधारी |


समस्त सर्पों संग श्याम ज्यों कढ़े
       कलिन्द की नन्दिनी की सुअंक से
खड़े किनारे जितने मनुष्य थे
   सभी महाशंकित भीत हो उठे ||हुए कईमूर्च्छित घोर त्रास से
कई भगे मेदिनि में गिरे कई |
हुई यशोदा अति ही प्रकम्पिता ब्रजेश भी व्यस्त समस्त हो गये||


  चली आ रही फेन उगलती,फन फैलाए व्यालों सी
अखिल यौवन के रंग उभार हड्डियों के हिलाते कंकाल
कचो के चिकने काले ,व्याल,केचुल कांस,सिबार


Bhayanak Ras/भयानक रस 


लपट कराल जवाल-जाल-माल दहूँ दिसि ,
धूम अकुलाने,पहिचानै कौन काहि रे ||
पानी को ललात,बिललात,जरे गात,
परे पाइमालतू भ्रात,तू निबाहि रे||
प्रिया तू पराहि नाथ नाथ तू पराहि बाप.बाप तू पराहि पूत पूत पराहि रे
तुलसी बिलोकि गोल ब्याकुल बिहालक है
लेहि दससीस अब बीस चख   चाहि रे |

शुक्रवार, अप्रैल 24, 2020

रौद्र रस


रौद्र रस- रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है |अपना शत्रु या दुष्ट व्यक्ति समाजद्रोही,खलनायक आदि इसके आलंबन विभाव होते है ,इनके आचरण एवं कार्य उद्दीपन है | जो तुम्हारे अनुसासनि पावौ|कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं ||
काचों घट जिमि डारों फोरी|सकौ मेरु मूलक जिमि तोरी |

सुनुहं रामाजेहि सिव धनु तोरा |सहसबाहु सम रिपु मोरा ||
सो बिलगाऊ बिहाई समाजा| न त मारे जइहैं सब राजा ||

उस काल मारे क्रोध के तनु कापने उनका लगा |
मनो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा |
मुख बाल रवि सम लाल होकर ज्वाला सा बोधित हुआ
प्रलयार्थ उनके मिस वहां क्या काल ही क्रोधित हुआ
 दुर्धर्ष जलते से हुए उत्ताप के उत्कर्ष से
कहने लगे तब वे अरविन्दम वचन अमर्ष से |
सुर नर असुर गंधर्व आदि कोई भी कहीं
कल शाम तक मुझसे जयद्रथ को बचा सकते नहीं
जो राउर अनुशान पाऊँ |
कंदुक इव ब्रह्मांड उठाऊँ||
काचें घट जिमि डारिऊँ फोरी |
सकौ मेरू मुले इव तोरी ||

गुरुवार, अप्रैल 23, 2020

करूण रस



करूण रस – जब किसी प्रिय व्यक्ति का वियोग या उसके मरणसे शोक उत्पन्न होता है तो करुण रस उत्पन्न होता है |इसका स्थायी भाव शोक है |

  फिर पीटकर सिर और छाती अश्रु बरसाती हुई
कुकरी सदृश सकरूण गिरा दैन्य से दरसाती हुई ||
बहुविध विलाप प्रताप वह करने लगी उस शोक में |
निज प्रिय-वियोग समान दुःख होता न कोई लोक में |

हाय राम कैसे झेले हम अपनी लज्जा अपना शोक |
गया हमारे ही हाथों से अपना राष्ट्र पिता परलोक ||

धोखा न दो भैया मुझे,इस भांति आकर के यहाँ
मझधार में मुझको बहाकर तात जाते हो कहाँ ?
सीता गई तुम भी चले  मैं भी न जीऊंगा यहाँ
सुग्रीव बोले साथ में सब जायेंगे बानर वहाँ ?
सुदामा की दीन दशा देखकर श्रीकृष्ण का व्याकुल होना—
पायं बेहाल बिवाइन सों भये,कंटक-जाल लगे पुनि जोये |
हाय| महादुख पाये सखा!तुम आये इतै न कितने दिन खोये |
देखि सुदामा की दीन दसा,करूण करिकै करूणानिधि रोये |
अभी तो मुकुट बंधा था माथ
हुए कल ही हल्दी के हाथ
खुले भी न थे लाज के बोल
खिले थे चुम्बन शून्य कपोल
हाय रुक गया यहीं संसार
बना सिंदूर अनल अंगार
वातहत लतिका वह सुकुमार
पड़ी है छिन्नाधार!
दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ, आज जो नहीं कहीं

रही खरकती हाय शूल-सी, पीड़ा उर में दशरथ के
ग्लानि, त्रास, वेदना - विमण्डित, शाप कथा वे कह न सके
मणि खोये भुजंग-सी जननी
फन-सा पटक रही थी शीश
अन्धी आज बनाकर मुझको
क्या न्याय किया तुमने जगदीश ?


रविवार, अप्रैल 19, 2020

हास्य रस -


हास्य रस -  इस रस में हास्य की प्रधानता होती है |नाटक के पात्र की विचित्र वेशभूषा,हावभाव ,या आकृति के कारण जब पाठक के मन में हसी ऊपन्न होतो हास्य रस कहलाता है |

विन्ध्य के वासी उदासी तपोव्रत धारी महा बिनु नारी दुखारे |
गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुनि में मुनि वृन्द सुखारे |
है है शिला सब चंद मुररी पंखी पद मंजुल-कंज तिहारे|
किन्ही भली रघुनायक जूं कंरून जूं कंरून करी कानन कौ पग धारे |

इस कविता में विन्ध्य वासी  तप करने वाले बिना पत्नी के बहुत उदास है पर  जैसे ही सुनते है  श्री राम जी जंगल में आये है  वह खुश हो जाते है क्योंकि उन्होंने सुना था कि श्री रामचन्द्र के चरण का स्पर्श पाकर गौतम ऋषि की स्त्री जो श्राप से पत्थर बन गयी थी पुनः नारी रूप में आ गयी और इस जंगल में तो हजारों पत्थर है अगर सब स्त्री बन गयी  तो तपस्वियों की  बल्ले बल्ले |    
नाना वाहन नाना वेषा।
बिहसे सिव समाज निज देखा।।
           
कोउ मुख-हीन बिपुल मुख काहू।
           
बिन पद-कर कोउ बहु पद-बाहु।।

ओ गॉड! विनय सुन मेरी ,
होऊ मच महिमा तेरी!
ह्वेंन  द्रोपदी पुकारी ,
अब लेट न करो बनवारी |
ऐट वन्स इनलार्ज हुई सारी,
दुशासन एक्सेप्ट हुई सारी  
 मतहिं पितहिं उरिन भये नीके।
गुरु ऋण रहा सोच बड़ जी के।।

शनिवार, अप्रैल 18, 2020

श्रृंगार रस


श्रृंगार रस –प्रेम पूर्वक वर्णन श्रृंगार रस के अंतर्गत आता है | श्रृंगार का स्थायी भाव रति होता है |इसके दो भेद है संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार | इसे रस राज कहते हैं |

संयोग श्रृंगार रस – जब नायक और नायिका का मिलन  होता है अर्थात् जब प्रेमी और प्रेमिका का साथ  हो |
1.   बतरस लालच लाल की ,मुरली धरी लुकाय |
सौंह करैं भौहँनि हंसे, दैन कहैं नटी जाय |

2.   देखन मिस मृग- बिहंग तरू, फिरति बहोरि-बहोरि |
निरिख-निरिख रघुवीर-छवि ,बढ़ी प्रीति न थोरि||

3.   नहीं पराग नहिं मधुर मधु,नहिं विकास इहि काल |
अली कली ही सों बिध्यों, आगें कौन हवाल ||

4.    राम के रूप निहारति जानकी कंकन के नग की परछाहीं । 
याती सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारत नाहीं ।

   5 कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात

     भरे भौन में करत है, नैननु ही सौ बात

वियोग श्रृंगार -- जब नायक और नायिका का दूर  होते  है अर्थात् जब प्रेमी और प्रेमिका का साथ न   हो |
1.   अति मलीन वृषभानु-कुमारी
अध मुख रहित ,उरघ नहिं चितवति ,ज्यों गथ हारे थकित जुआरी |

2   छुटे चिकुर ,बदन कुम्हिलानों
त्यों नलिनी हिमकर की मारी ||

3.    उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥

मंगलवार, नवंबर 05, 2019

रस - स्थायी भाव , संचारी भाव,विभाव


जब हम किसी साहित्य का अध्ययन करते है तो जो हमें अनुभूति होती है उसे ही रस कहते है दूसरे शब्दों में कहें तो कविता कहानी ,उपन्यास या साहित्य की किसी अन्य विधा से जिस आनंद की अनुभूति होती है वह रस है | रस काव्य की आत्मा है| रस के संबंध भरत मुनि की पारिभाषा सबसे पहले मान्य हुई थी , भरत मुनि रस के प्रवर्तक आचार्य है | भरत मुनि ने अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र में रस की वृहद् व्याखा की है |
विभाव अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की अभिव्यक्ति होती है |
किसी भी रस का आधार भाव है भाव शुन्य व्यक्ति के हृदय में रस उत्पन्न ही नही होता है | भाव मन के विकार है| ये दो प्रकार के होते है – स्थायी भा  व ,संचारी भाव
स्थायी भाव – सहृदय सामाजिक के हृदय में वासना के रूप में स्थित भाव स्थायी भाव है | अथार्त स्थायी भाव प्रत्येक मानव के मन में सुप्तावस्था में विराजमान  ही रहते है  तथा अनुकूल परिस्थिति पाते ही जाग्रत हो जाते है और रस के रूप में परिणित हो जाते है | इनकी संख्या के विषय में  विद्वानों के मध्य मत भेद है ,परन्तु इतना निश्चित है कि प्रत्येक रस का एक स्थायी भाव है |
स्थायी भाव
रस
रति
श्रृंगार
हास
हास्य
शोक
 करुण
उत्साह
वीर
क्रोध
रोद्र
भय
भयानक
जुगुप्सा ( घृणा )
वीभत्स
विस्मय
अद्भुत
वैराग्य
शांत
ईश्वर के प्रति प्रेम
भक्ति
बच्चे के प्रति प्रेम
वात्सल्य

विभाव – रस की उत्तपति के कारण को विभाव कहते है |विभाव दो प्रकार के होते है |
आलंबन विभाव ,उद्दीपन विभाव
आलंबन विभाव -- जिस के कारण स्थायी भाव की उत्तपति होती है उसे आलंबन विभाव कहते है जैसे नाटक में नायक , नायिका आदि |  आलंबन विभाव के दो भेद हो ते है |--आश्रय आलंबन एवं विषय आलंबन
वन में सीता के द्वारा राम को और उनसे प्रेम करना इस सीता आश्रय है और राम विषय आलंबन है |
उद्दीपन विभाव – उत्पन्न हुए स्थायी भाव को तीव्र करने वाली परिस्थिति को उद्दीपन विभाव कहते है | जैसे चंद्रा, कोकिल कुंजन और एकांत स्थल पर नायिका से मिलाना ,  हास्योत्पादक चेष्टाएँ इत्यादि |
अनुभाव – विभाव के पश्चात उत्पन्न भाव को अनुभाव कहते है | अथार्त कारण के पश्चात कार्य का उत्पन्न होना |अनुभाव के चार प्रकार है |
वाचिक अनुभाव ,कायिक अनुभाव ,आहार्य अनुभाव ,सात्विक अनुभाव
 वाचिक अनुभाव—वचनों में कठोरता कोमलता ,आदि का प्रदर्शन करना |जैसे जोर से चिल्लना , दुखी होकर बोलना , उत्साह में बोलना |
कायिक अनुभाव—शारीरिक चेष्टायों को कायिक अनुभाव कहते है | शर्मना ,हाथ मलना ,नजरें झुका लेना
आहार्य – वस्त्रों के द्वारा भावों को प्रकट करना
सात्त्विक – जो विचार शारीर की स्वाभाविक क्रिया हो | 
संचारी भाव- जो भाव मन कुछ समय तक रहकर चले जाते है संचारी है |अथार्त जो भाव संचरण करते रहे |इनकी संख्या 33मानी गयी है |



रविवार, नवंबर 03, 2019

रस के भाव



भाव

स्थायी भाव के साथ विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से प्राप्त चामत्कारिक आनंद-विशेष को रस कहते हैं
() संचारी भाव/व्यभिचारी भाव - संचारी का अर्थ है- साथ साथ संचरण करने वाला अर्थात् साथ-साथ चलने वाला संचारी भाव किसी किसी स्थायी भाव के साथ प्रकट होते हैं ये क्षणिक,अस्थायी और पराश्रित होते हैं, इनकी अपनी अलग पहचान नहीं होती ये किसी एक स्थायी भाव के साथ रहकर सभी के साथ संचरण करते हैं , इसलिए इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है

* संचारी भाव या व्यभिचारी भाव 33 होते हैं :--
- अपस्मार(मूर्छा)        १२- चपलता        २३- लज्जा
- अमर्ष(असहन)        १३- चिन्ता         २४- विबोध
- अलसता             १४- जड़ता         २५- वितर्क
- अवहित्था(गुप्तभाव)    १५- दैन्य          २६- व्याधि
- आवेग              १६- धृति          २७- विषाद
- असूया              १७- निद्रा          २८- शंका
- उग्रता               १८- निर्वेद(शम)     २९- श्रम
- उन्माद              १९- मति          ३०- संत्रास
- औत्सुक्य            २०- मद           ३१- स्मृति
१०- गर्व               २१- मरण         ३२- स्वप्न
११- ग्लानि             २२- मोह           ३३- हर्ष
 
अनुभाव
अनुभाव का अर्थ है- किसी भाव के उत्पन्न होने के बाद उत्पन्न होने वाला भाव।तात्पर्य यह कि जब किसी के हृदय में कोई भाव उत्पन्न होता है और उत्पन्न भावों के परिणाम स्वरूप वह जो चेष्टा करता है या उसमें जो क्रियात्मकता आती है , उस चेष्टा या क्रियात्मकता को अनुभाव कहते हैं
जैसे - क्रोध का भाव जगने पर...काँपना , दाँत पीसना,मुट्ठी भींचना,गुर्राना,आँखें लाल हो जाना आदि
अनुभाव हैं


अनुभाव दो प्रकार के होते हैं :-
(अ) साधारण अनुभाव :- कोई भी भाव उत्पन्न होने पर जब आश्रय (जिसके मन में भाव उत्पन्न हुआ है) जान- बूझ कर यत्नपूर्वक कोई चेष्टा , अभिनय अथवा क्रिया करता है,तब ऐसे अनुभाव को साधारण या यत्नज अनुभाव कहते हैं
 
जैसे :- बहुत प्रेम उमड़ने पर गले लगाना
सात्विक अनुभाव :- कोई भी भाव उत्पन्न होने पर जब आश्रय (जिसके मन में भाव उत्पन्न हुआ है) द्वारा अनजाने में अनायास, बिना कोई यत्न किए स्वाभाविक रूप से कोई चेष्टा अथवा क्रिया होती है,तब ऐसे अनुभाव को सात्विक या अयत्नज अनुभाव कहते हैं

 जैसे - डर से जड़वत् हो जाना , पसीने पसीने होना , काँपना