मंगलवार, जुलाई 19, 2011

चिंता सर्ग 3

सुरा सुरभिमय बदन अरूण वे
नयन भरे आलस अनुराग़,
कल कपोल था जहाँ बिछलता
कल्पवृक्ष का पीत पराग।

विकल वासना के प्रतिनिधि
वे सब मुरझाये चले गये,
आह जले अपनी ज्वाला से
फिर वे जल में गले, गये।"

"अरी उपेक्षा-भरी अमरते री
अतृप्ति निबार्ध विलास
द्विधा-रहित अपलक नयनों की
भूख-भरी दर्शन की प्यास।

बिछुडे़ तेरे सब आलिंगन,
पुलक-स्पर्श का पता नहीं,
मधुमय चुंबन कातरतायें,
आज न मुख को सता रहीं।

त्न-सौंध के वातायन,
जिनमें आता मधु-मदिर समीर,
टकराती होगी अब उनमें
तिमिंगिलों की भीड़ अधीर।

देवकामिनी के नयनों से जहाँ
नील नलिनों की सृष्टि-
होती थी, अब वहाँ हो रही
प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि।

वे अम्लान-कुसुम-सुरभित-मणि
रचित मनोहर मालायें,
बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें
विलासिनी सुर-बालायें।

देव-यजन के पशुयज्ञों की
वह पूर्णाहुति की ज्वाला,
जलनिधि में बन जलती
कैसी आज लहरियों की माला।"

उनको देख कौन रोया
यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर
व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय
यह प्रालेय हलाहल नीर।


हाहाकार हुआ क्रंदनमय
कठिन कुलिश होते थे चूर,
हुए दिगंत बधिर, भीषण रव
बार-बार होता था क्रूर।


दिग्दाहों से धूम उठे,
या जलधर उठे क्षितिज-तट के
सघन गगन में भीम प्रकंपन,
झंझा के चलते झटके।


अंधकार में मलिन मित्र की
धुँधली आभा लीन हुई।
वरूण व्यस्त थे, घनी कालिमा
स्तर-स्तर जमती पीन हुई,

पंचभूत का भैरव मिश्रण
शंपाओं के शकल-निपात
उल्का लेकर अमर शक्तियाँ
खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात।

बार-बार उस भीषण रव से
कँपती धरती देख विशेष,
मानो नील व्योम उतरा हो
आलिंगन के हेतु अशेष।

उधर गरजती सिंधु लहरियाँ
कुटिल काल के जालों सी,
चली आ रहीं फेन उगलती
फन फैलाये व्यालों-सी।

धसँती धरा, धधकती ज्वाला,
ज्वाला-मुखियों के निस्वास
और संकुचित क्रमश: उसके
अवयव का होता था ह्रास।

सबल तरंगाघातों से
उस क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी-
व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी
ऊभ-चूम थी विकलित-सी।

बढ़ने लगा विलास-वेग सा
वह अतिभैरव जल-संघात,
तरल-तिमिर से प्रलय-पवन का
होता आलिंगन प्रतिघात।

वेला क्षण-क्षण निकट आ रही
क्षितिज क्षीण, फिर लीन हुआ
उदधि डुबाकर अखिल धरा को
बस मर्यादा-हीन हुआ।

करका क्रंदन करती
और कुचलना था सब का,
पंचभूत का यह तांडवमय
नृत्य हो रहा था कब का।"

"एक नाव थी, और न उसमें
डाँडे लगते, या पतवार,
तरल तरंगों में उठ-गिरकर
बहती पगली बारंबार।

लगते प्रबल थपेडे़, धुँधले तट का
था कुछ पता नहीं,
कातरता से भरी निराशा
देख नियति पथ बनी वहीं।

लहरें व्योम चूमती उठतीं,
चपलायें असंख्य नचतीं,
गरल जलद की खड़ी झड़ी में
बूँदे निज संसृति रचतीं।

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