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बुधवार, मई 06, 2020

उत्प्रेक्षा अलंकार


§जहाँ उपमेय और उपमान की समानता के कारण उपमेय में उपमान की सम्भावना या कल्पना की जाए,वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है |
§वाचक- मानो,मानहू,मनहु,मन,जानो,जानहु,जनु,निश्चय ,मेरे जान,इव
§ उस काल मानो क्रोध से तन काँपने उनका लगा |
   मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा |

जान पड़ता नेत्र देख बड़े-बड़े |
हीरकों में गोल नीलम हैं जड़े ||

पद्यरागों से अधर मानों बने |मोतियों से दांत निर्मित  है घने ||
नित्य ही नहाता क्षीर सिन्धु में कलाधर है ,
सुंदरी,नवानन की समता की इच्छा से

चमचमाता चंचल नयन,बिच घुन्घुट-पट झीन |
मनहूँ सुरसरिता विमल जल उछरत जुग मीन ||

सोहत ओढ़े पीत पट,स्याम सलोने गात |
मनौ नीलमनि सैल पर,आतप परयौ प्रभात ||

रूपक अलंकार



§जहाँ गुण की अत्यंत समानता दर्शाने के लिए उपमेय और उपमान को एक ही बताया जाता है तो उसे रूपक अलंकार कहाँ जाता है |

§उपमा की तरह रूपक में उपमेय तथा उपमान दोनों अलग अलग कहे जाते हैं,पर कवि दोनों को अलग-अलग कहकर भी अभेद या एकता बताता है |

§चरण कमल  बंदौ हरिराई |

§जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै,अंधे को सब कछु दरसाई 

§चेतना लहर न उठेगी
जीवन समुद्र थिर न होगा
संध्या हो सर्ग प्रलय की
विच्छेद मिल्न फिर होगा

उदित उदय-गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग |
विकसे संत-सरोज सब,हरषे लोचने भृंग ||

बीती विभावरी जाग री !
अम्बर  पनघट  में डुबो रही
तारा घट उषा नागरी |
मन का मनका फेर
पायो जी मैंने राम-रतन धन पायो |

समय सिन्धु चंचल है भारी |

§एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास |
§आए महंत बसंत

मंगलवार, मई 05, 2020

उपमा अलंकार


§समान धर्म,स्वभाव,शोभा,गुण आदि के आधार पर जहाँ एक वस्तु की तुलना दूसरी वस्तु से की जाती है | वहाँ उपमा अलंकार होता है | 
§जहाँ भिन्नता रहते हुए भी उपमेय की उपमान के साथ  समानता का कथन हो, वहाँ उपमा अलंकार होता है |
§उपमा के अंग –
§उपमेय- जिस वस्तु या व्यक्ति की समानता की जाती है,उसे उपमेय कहते है |
§उपमान – जिस प्रसिद्ध  वस्तु या व्यक्ति से उपमेय की समानता की जाती है ,उसे उपमान कहते है |
§समान धर्म– उपमेय और उपमान में जो गुण समान पाया जाता है ,या जिस सामान्य गुण की समानता की जाती है , उसे समान धर्म कह्ते है |
§ वाचक शब्द– जिन शब्दों से समानता का बोध हो| जिमि,इव,ज्यों,जैसे,सम ,सरिस आदि


पीपर पात
सरिस मन डोला |
§नीलकमल से सुंदर नयन |
§हरिपद कोमल  कमल से |

§मुख बाल-रवि-सम लाल होकर
  ज्वाला-सा-बोधित हुआ |

मंहगाई बढ़ रही निरंतर द्रुपदसुता के चीर सी |
बेकारी बढ़ रही चीरती अंतर्मन को तीर सी |

बरसा रहा है रवि अनल
भूतल तवा-सा जल रहा |
वह नव-नलिनी से नयन वाला कहाँ है |
हाय फूल-सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढेरी ||

श्लेष अलंकार


श्लेष का अर्थ है चिपकना |
अत:  जहाँ एक शब्द के एक से अधिक अर्थ निकलें,वहाँ श्लेष अलंकार होता है |
चरण धरत चिंता करत,चितवत चारहूँ ओर |
सुबरन को खोजत फिरत,कवि,व्यभिचारी चोर |

जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय |
बारे उजियारो करै, बढ़े अंधेरो होय || 
§चिरजीवौ जोरी जुरे, क्यों न सनेह गंभीर |
को घटि या वृषभानुजा,वे हलधर के वीर |


§मधुबन की छाती को देखो |
§सूखी कितनी इसकी कलियाँ |

§मेरी भव-बाधा हरौ राधा नागरि सोय |
 जा तन की झाई परै स्यामु हरित दुति होय ||


यमक


जब एक ही शब्द की आवृत्ति  दो या दो से अधिक बार हो परन्तु उनके अर्थ अलग हो तो वहां यमक अलंकार होता है |
यमक के प्रयोग से कविता में चमत्कार  और सुन्दरता आ जाती है |
एक शब्द फिर फिर जहाँ परै अनेकन बार |
अर्थ और ही और हो सो यमकालंकार ||

§कनक कनक तें सौ गुनी मादकता अधिकाय अधिकाय |


   या खाये बौराय जग वा पाये बौराय||

   तरणी के  संग तरल तरंग में
  तरणी डूबी थी हमारी ताल में

तीन बेर खाती थी वो तीन बेर खाती है |
काली घटा का घमण्ड घटा |

माला फेरत जुग भया,गया  न मनका फेर |
कर  का मनका डारि के,मन का मनका फेर |

|कहै कवि बेनी बेनी ब्याल की चुराई लीनी |

जेते तुम तारे तेते नभ में न तारे हैं |

सोमवार, मई 04, 2020

अनुप्रास अलंकार


जब किसी पद में वर्णों की आवृति बार-बार  होती है तो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है ||


 स्वर का सम्मेलन  जहाँ,चाहे होय न होय |


व्यजंन की समता मिले,अनुप्रास है सोय |


तरनि तनूजा तट तमाल तरूवर बहु छाए |
सो सुख सुजस सुलभ मोहिं स्वामी

मृद मंद मंद-मंथर-लघु- तरणी-हंसिनी-सी सुन्दर,

तिर रही खोल पाली के पर |
पुलक प्रकट करती है धरती
हरित तृणों की नोकों से
मानो झीम रहे हैं तरू भी
मंद पवन के झोंकों से 

चारू चंद्र की चंचल किरणें खेल रही है जल-थल में |

निपट निरंकुस निठुर निसंकू |
जेहि ससि कीन्ह सरुज सकलंकू
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सु नि |


कहत लखन सन राम ह्रदय गुनि ||




अलंकार

अलंकार का शाब्दिक  अर्थ है आभूषण गहना जिस प्रकार से मनुष्य आभूषण या अच्छे कपडे पहन कर सुन्दर लगता है |    उसी प्रकार से काव्य में अलंकार के प्रयोग से काव्य की शोभा  बढ़ती है | अलंकरोति  इति अलकार: शोभा बढ़ाने वाले पदार्थ को अलंकार कहते है |
आचार्य केशव अलंकार को काव्य का अनिवार्य गुण बताया है |केशव कहते है
´  जदपि सुजाति सुलच्छनी,सुबरन सरस सुवृत ||  भूषण बिनु न बिराजई,कविता बनिता मित ||
अर्थात सभी गुणों सेयुक्त होने पर भी कविता ,स्त्री और मित्र बिना आभूषण के शोभा नहीं पाते है |
अलंकार तीन  प्रकार के होते है शब्दालंकार और  अर्थालंकार उभया अलंकार   


शब्दालंकार शब्द के आश्रित अलंकार को शब्दालंकार  कहते है |जब काव्य में शब्दों  के कारण चमत्कार आ जाता है तो वहाँ  शब्दालंकार होता है | 
शब्दालंकार के अंतर्गत आने वाले अलंकार—  अनुप्रास,यमक ,श्लेष,वक्रोक्ति पुनरूक्ति  पुनरूक्तवदाभास, विप्सा
अर्थालंकार—जबी  काव्य में अर्थगत चमत्कार की प्रधानता होती है तब अर्थालंकार  होता है |इस अलंकर अगर शब्द के  पर्यायवाची  को रख दे तब भी अलंकार सौन्दर्य  खंडित नहीं होता है 
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उपमा ,उत्प्रेक्षा, रूपक ,प्रतीक, उदहारण,  निदर्शना,दीपक, अतिशयोक्ति,अलौकिक, भ्रान्तिमान,संदेह,उल्लेख, स्मरण


जो अलंकार समान रूप से शब्दालंकार और  अर्थालंकार पर आश्रित हो |संकर और संसृष्टि