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सोमवार, सितंबर 18, 2023
अपठित भाग 1
हिंदी के बारे में या तो उसके विरोध के बारे में जब भी कोई हलचल होती है, तो राजनीति का मुखौटा ओढ़े रहने वाले भाषा व्यवसायी बेनकाब होने लगते हैं। उनकी बेचैनी समझ में नहीं आती। संविधान में स्पष्ट प्रावधानों के बाद भी यह विश्वास का माहौल बनता क्यों हैं? यहां हम केवल एक ही प्रावधान को याद करें। संविधान के अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए निर्देश देते हुए स्पष्ट कहा गया है। 'संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाएं, उसका विकास करें, जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: तथा अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।'
यही सब देखकर हिंदी के विषय में अक्सर यह लगने लगता है कि जैसे संविधान के संकल्पों का निष्कर्ष कहीं खो गया है और हम निर्माताओं के आशय से कहीं दूर भटक गए हैं। सहज ही मन में यह प्रश्न उठते हैं कि हमने संविधान के सपने को साकार करने के लिए क्या किया? क्यों नहीं हमारे कार्यक्रम प्रभावी हुए? क्यों और कैसे अंग्रेजी भाषा की मानसिकता हम पर और हमारी युवा एवं किशोर पीढ़ी पर इतनी हावी हो चुकी है कि इस मिट्टी से जन्मी हमारी अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में प्रतीत होता है? शिक्षा में, व्यापार और व्यवहार में, संसदीय, शासकीय एवं न्यायिक प्रक्रियाओं में हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं को वर्चस्व क्यों नहीं मिल पा रहा?
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