कक्षा १० लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कक्षा १० लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, जून 26, 2025

NCERT Solutions: पाठ 10 - एक कहानी यह भी, क्षितिज II, हिंदी, कक्षा - 10

 


प्रश्न-1.लेखिका के व्यक्तित्व पर किन-किन व्यक्तियों का किस रूप में प्रभाव पड़ा?


लेखिका के व्यक्तित्व पर मुख्य रूप से दो व्यक्तियों का गहरा प्रभाव पड़ा:


पिता का प्रभाव

लेखिका के पिता का उन पर मिला-जुला प्रभाव रहा. एक ओर, उनके पिता की कुछ बातों और व्यवहार के कारण लेखिका में हीन भावना और आत्मविश्वास की कमी आ गई थी. वहीं दूसरी ओर, उन्हीं के प्रभाव से लेखिका के मन में देश प्रेम की भावना का बीज भी अंकुरित हुआ.


शिक्षिका शीला अग्रवाल का प्रभाव

शिक्षिका शीला अग्रवाल ने लेखिका के व्यक्तित्व को नई दिशा दी. उनकी जोशीली बातों ने लेखिका के खोए हुए आत्मविश्वास को फिर से जगाया. साथ ही, उन्होंने देश प्रेम की जिस भावना को पिता ने जन्म दिया था, उसे सही माहौल और प्रेरणा दी. इसी के परिणामस्वरूप, लेखिका ने स्वतंत्रता आंदोलन में खुलकर भाग लेना शुरू कर दिया.


प्रश्न 2: इस आत्मकथ्य में लेखिका के पिता ने रसोई को ‘भटियारखाना’ कहकर क्यों संबोधित किया है?

लेखिका के पिता रसोई को 'भटियारखाना' कहकर संबोधित करते थे क्योंकि उनका मानना था कि रसोई के कामों में उलझकर लड़कियाँ अपनी क्षमता और प्रतिभा को पूरी तरह नष्ट कर देती हैं. वे केवल खाना बनाने और खाने तक ही सीमित होकर रह जाती हैं, और अपनी वास्तविक प्रतिभा का सदुपयोग नहीं कर पातीं.



उनके अनुसार, रसोई एक ऐसी जगह है जहाँ लड़कियों की प्रतिभा को भट्टी में झोंक दिया जाता है, जिससे वह जलकर राख हो जाती है. इसी सोच के कारण वे रसोई को नकारात्मक रूप से 'भटियारखाना' कहते थे.

प्रश्न 3: वह कौन-सी घटना थी जिसके बारे में सुनने पर लेखिका को न अपनी आँखों पर विश्वास हो पाया और न अपने कानों पर?

लेखिका को तब अपनी आँखों और कानों पर विश्वास नहीं हुआ जब उनके कॉलेज से प्रिंसिपल का पत्र आया. इस पत्र में लिखा था कि लेखिका के पिता आकर मिलें, क्योंकि उनकी गतिविधियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है.

यह पत्र पढ़कर पिताजी बहुत गुस्से में कॉलेज गए, जिससे लेखिका काफी डर गईं. हालाँकि, जब पिताजी प्रिंसिपल से मिले और उन्हें लेखिका के 'असली अपराध' (जो शायद स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी थी) का पता चला, तो उनके व्यवहार में अप्रत्याशित बदलाव आया. पिताजी को अपनी बेटी से कोई शिकायत नहीं रही.

पिताजी के इस अचानक बदले हुए व्यवहार को देखकर ही लेखिका को न तो अपनी आँखों पर और न ही अपने कानों पर विश्वास हुआ.

प्रश्न 4: लेखिका की अपने पिता से वैचारिक टकराहट को अपने शब्दों में लिखिए।

लेखिका की अपने पिता के साथ कई मुद्दों पर वैचारिक टकराहट होती थी, जो उनके विचारों के मूलभूत अंतर को दर्शाती है:


शिक्षा और स्वतंत्रता का दायरा

लेखिका के पिता स्त्रियों की शिक्षा के विरोधी नहीं थे, लेकिन वे चाहते थे कि स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करके भी घर की चारदीवारी तक ही सीमित रहें. वहीं, लेखिका एक खुले विचारों वाली महिला थीं और इस सीमा को स्वीकार करने को तैयार नहीं थीं.


विवाह और आकांक्षाएँ

पिता लेखिका की जल्दी शादी करने के पक्ष में थे, जबकि लेखिका अपनी जीवन की आकांक्षाओं को पूरा करना चाहती थीं और विवाह को प्राथमिकता नहीं दे रही थीं.


स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी

लेखिका का स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेना और सार्वजनिक रूप से भाषण देना उनके पिता को बिलकुल पसंद नहीं था. यह उनके 'घर की चारदीवारी' वाले विचार के बिलकुल विपरीत था.


स्त्री के प्रति व्यवहार

पिता का लेखिका की माँ के प्रति अच्छा व्यवहार नहीं था. लेखिका इसे अनुचित मानती थीं और स्त्री के प्रति ऐसे व्यवहार की कड़ी निंदक थीं, जो उनके पिता के विचारों से मेल नहीं खाता था.


रंग-रूप को लेकर भेदभाव

बचपन में लेखिका के काले रंग-रूप के कारण उनके पिता का मन उनके प्रति उदासीन रहा करता था. यह भेदभाव लेखिका को गहराई तक प्रभावित करता था और इस बात को लेकर भी उनकी अपने पिता से वैचारिक भिन्नता थी.


ये सभी बिंदु दर्शाते हैं कि पिता और पुत्री के बीच आधुनिकता, स्वतंत्रता, और स्त्री की भूमिका को लेकर गहरी वैचारिक भिन्नताएँ थीं, जिसके कारण उनमें अक्सर टकराव होता था

प्रश्न 5: इस आत्मकथ्य के आधार पर स्वाधीनता आंदोलन के परिदृश्य का चित्रण करते हुए उसमें मन्नू जी की भूमिका को रेखांकित कीजिए।

इस आत्मकथ्य के आधार पर, सन् 1946-47 के दौरान पूरे देश में 'भारत छोड़ो आंदोलन' अपने चरम पर था. हर जगह हड़तालें, प्रभात-फेरियाँ, जुलूस और ज़ोरदार नारेबाज़ी का माहौल था.

इस माहौल में, लेखिका मन्नू भंडारी के घर में उनके पिता और उनके साथियों के बीच होने वाली राजनीतिक गोष्ठियों और गतिविधियों ने उन्हें शुरू से ही जागरूक कर दिया था. उनकी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने उन्हें इस आंदोलन में सक्रिय रूप से जोड़ दिया.

जब देश में नियम-कानून और मर्यादाएँ टूट रही थीं, तब लेखिका ने अपने पिता की नाराज़गी की परवाह न करते हुए पूरे उत्साह के साथ आंदोलन में हिस्सा लिया. उनकी संगठन-क्षमता, जोश और विरोध करने का तरीका देखने लायक था. वे बिना किसी झिझक के चौराहों पर भाषण देतीं, नारेबाज़ी करतीं और हड़तालों में शामिल होतीं.

इस प्रकार, मन्नू भंडारी ने स्वाधीनता आंदोलन में अपनी महत्वपूर्ण और सक्रिय भूमिका निभाई, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे केवल दर्शक नहीं बल्कि इस बड़े बदलाव का एक अभिन्न हिस्सा थीं.

___________________________________________________________________________________

रचना और अभिव्यक्ति 

प्रश्न 6: लेखिका ने बचपन में अपने भाइयों के साथ गिल्ली डंडा तथा पतंग उड़ाने जैसे खेल भी खेले किंतु लड़की होने के कारण उनका दायरा घर की चारदीवारी तक सीमितथा। क्या आज भी लड़कियों के लिए स्थितियाँ ऐसी ही हैं या बदल गई हैं, अपने परिवेश के आधार पर लिखिए

लेखिका के बचपन में उन्हें खेलने और पढ़ने की सीमित आजादी थी, जो पिता द्वारा निर्धारित गाँव की सीमा तक ही थी. घर की चारदीवारी से बाहर उनका दायरा नहीं था.


आज परिस्थितियाँ काफी बदल गई हैं. लड़कियाँ अब एक शहर से दूसरे शहर शिक्षा ग्रहण करने और खेलने जाती हैं. भारतीय महिलाएँ विदेशों तक, यहाँ तक कि अंतरिक्ष तक जाकर देश का नाम रोशन कर रही हैं. वे विभिन्न क्षेत्रों में अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन कर रही हैं. हालांकि, इसके साथ ही यह दूसरा पहलू भी है कि हमारे समाज में आज भी कुछ लोग स्त्री स्वतंत्रता के पूर्ण पक्षधर नहीं हैं, जिससे लड़कियों को पूरी तरह से आगे बढ़ने में चुनौतियाँ आती हैं.

श्न 7: मनुष्य के जीवन में आस-पड़ोस का बहुत महत्व होता है। परंतु महानगरों में रहने वाले लोग प्राय: ‘पड़ोस कल्चर’ से वंचित रह जाते हैं। इस बारे में अपने विचार लिखिए।

आजकल, खासकर महानगरों में, पड़ोस कल्चर लगभग खत्म होता जा रहा है. पहले आस-पड़ोस का बहुत महत्व होता था, जहाँ लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते थे. पर अब मनुष्य के संबंध सीमित होते जा रहे हैं और वह आत्म-केंद्रित हो गया है. लोगों को अपने सगे-संबंधियों के बारे में भी ज़्यादा जानकारी नहीं होती, तो पड़ोसियों से जुड़ना तो और भी मुश्किल हो गया है.

इसका मुख्य कारण समय का अभाव है. आधुनिक जीवनशैली में लोग इतने व्यस्त हो गए हैं कि उनके पास अपने पड़ोसियों से मिलने, बात करने या उनके साथ समय बिताने का वक्त ही नहीं है. काम और व्यक्तिगत जीवन की जिम्मेदारियों के बीच, पड़ोसियों के लिए जगह कम ही बचती है. इससे समाज में अकेलापन बढ़ रहा है और सामुदायिक भावना कमजोर पड़ रही है. यह एक चिंताजनक बदलाव है जो सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर रहा है.

श्न 8: इस आत्मकथ्य में मुहावरों का प्रयोग करके लेखिका ने रचना को रोचक बनाया है। रेखांकित मुहावरों को ध्यान में रखकर कुछ और वाक्य बनाएँ – 

(क) इस बीच पिता जी के एक निहायत दकियानूसी मित्र ने घर आकर अच्छी तरह पिता जी की लू उतारी।

 (ख) वे तो आग लगाकर चले गए और पिता जी सारे दिन भभकते रहे। 

(ग) बस अब यही रह गया है कि लोग घर आकर थू–थू करके चले जाएँ।

 (घ) पत्र पढ़ते ही पिता जी आग–बबूला हो गए।

(क) लू उतारी – होमवर्क न करने से शिक्षक ने अच्छी तरह से छात्र की लू उतारी।

      लू उतारी" मुहावरे का अर्थ है: किसी को बुरी तरह से डाँटना, फटकारना, या दंडित करना।

  • उदाहरण 1: जब बेटे ने बिना बताए दोस्तों के साथ पिकनिक का प्लान बना लिया, तो पिता ने घर आते ही उसकी लू उतारी और उसे अगले दिन कहीं न जाने दिया।

  • उदाहरण 2: मैच हारने के बाद कोच ने पूरी टीम की लू उतारी, जिससे खिलाड़ियों को अपनी गलतियों का अहसास हुआ।

  • उदाहरण 3: चोरी पकड़ी जाने पर दुकानदार ने लड़के की ऐसी लू उतारी कि उसने दोबारा कभी ऐसी गलती न करने की कसम खाई।


  • "आग लगाना" मुहावरे का अर्थ है: झगड़ा लगाना, लड़ाई करवाना, या किसी स्थिति को और बिगाड़ना (भड़काना).

    उदाहरण:

    मोहन को रमेश और सुरेश के बीच गलतफहमी पैदा करने में मज़ा आता है, वह हमेशा उन दोनों के बीच आग लगाने का काम करता रहता है.

    थू-थू करना मुहावरे का अर्थ है: निंदा करना, बुराई करना, या आलोचना करना, जिससे किसी की बदनामी हो या उसे शर्मिंदगी महसूस हो.

    • उदाहरण 1: भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर मंत्री जी की पूरे शहर में थू-थू होने लगी।

    • उदाहरण 2: जब उसने परीक्षा में नकल करते हुए पकड़ा गया, तो सारे स्कूल में उसकी थू-थू हुई।

    • उदाहरण 3: अपनी बात से मुकर जाने के कारण सब लोग उसकी बेईमानी  पर थू-थू करने लगे।                                                                                                                                                                                     आग-बबूला होना मुहावरे का अर्थ है: बहुत अधिक क्रोधित होना, अत्यंत गुस्से में आ जाना.

      उदाहरण:

      जब उसे पता चला कि उसके दोस्त ने उसका राज़ खोल दिया है, तो वह आग-बबूला हो गया.

      देर रात तक पार्टी करने के बाद घर लौटे बेटे को देखकर माँ आग-बबूला हो उठीं.

      पुलिस ने जब चोर को पकड़ने में लापरवाही दिखाई, तो अधिकारी उन पर आग-बबूला हो गए.

    सोमवार, सितंबर 18, 2023

    अपठित भाग 2 गद्यांश

    बंगाल की शस्य- श्यामला धरती का सौंदर्य अविस्मरणीय है । इसके मनोहर और उन्मुक्त सौंदर्य को प्रतिभाशाली रचनाकार अपने गीतों, निबंधों और कविताओं में बांधने की कोशिश करते रहते हैं, लेकिन इसके मायावी और लोकोत्तर आकर्षण का रंच मात्र ही रुपायित करने में सफल हो पाए हैं। अविभाजित बंगाल का सौंदर्य किसी भी संवेदनशील मस्तिष्क के भीतर हलचल पैदा कर सकता है । चांदी सी चमकती मीलों लंबी नहरों और नदियों के बीच पन्नों की तरह चमकते हरे-भरे खेतों के चित्र संवेदनशील मन को अपूर्व आनंद से भर देते हैं । हरे-भरे खेतों में पके दानों की लहलहाती सुनहरी फसल, हवा में फुसफुसाते लंबे ताड़ के वृक्ष और साल की पत्तियों की बहती हुई मंद-मंद हवा, कंचनजंघा के उत्तुंग शिखर, सुंदरवन के घने जंगल, दीघा के सुंदर रेतीले समुद्र तट और उत्तर बंगाल के हरे-भरे चाय के बागान आंखों में रचे-बसे रहते हैं । प्राकृतिक छटाओं से भरी-पूरी यह धरती युगों से महान लेखकों, कवियों और कलाकारों को प्रेरित करती रही है । इस अनोखे वरदान के केवल वही पात्र हैं, जिन्हें धरती पर पैदा होने का सौभाग्य मिला है अथवा वे हैं जो अविभाजित बंगाल में रह चुके हैं।

    सामान्य ज्ञान पर प्रश्नोत्तरी Quiz

    Lets try It

    Question of

    Good Try! अच्छा प्रयास।
    आपने मे से प्रशं सही किए है!
    आपने अंक प्राप्त किए है ।

    अपठित भाग 1

    हिंदी के बारे में या तो उसके विरोध के बारे में जब भी कोई हलचल होती है, तो राजनीति का मुखौटा ओढ़े रहने वाले भाषा व्यवसायी बेनकाब होने लगते हैं। उनकी बेचैनी समझ में नहीं आती। संविधान में स्पष्ट प्रावधानों के बाद भी यह विश्वास का माहौल बनता क्यों हैं? यहां हम केवल एक ही प्रावधान को याद करें। संविधान के अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए निर्देश देते हुए स्पष्ट कहा गया है। 'संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाएं, उसका विकास करें, जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: तथा अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।' यही सब देखकर हिंदी के विषय में अक्सर यह लगने लगता है कि जैसे संविधान के संकल्पों का निष्कर्ष कहीं खो गया है और हम निर्माताओं के आशय से कहीं दूर भटक गए हैं। सहज ही मन में यह प्रश्न उठते हैं कि हमने संविधान के सपने को साकार करने के लिए क्या किया? क्यों नहीं हमारे कार्यक्रम प्रभावी हुए? क्यों और कैसे अंग्रेजी भाषा की मानसिकता हम पर और हमारी युवा एवं किशोर पीढ़ी पर इतनी हावी हो चुकी है कि इस मिट्टी से जन्मी हमारी अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में प्रतीत होता है? शिक्षा में, व्यापार और व्यवहार में, संसदीय, शासकीय एवं न्यायिक प्रक्रियाओं में हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं को वर्चस्व क्यों नहीं मिल पा रहा?

    सामान्य ज्ञान पर प्रश्नोत्तरी Quiz

    Lets try It

    Question of

    Good Try! अच्छा प्रयास।
    आपने मे से प्रशं सही किए है!
    आपने अंक प्राप्त किए है ।

    मंगलवार, अगस्त 18, 2020

    नमक का दारोगा

    जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड-छोडकर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था।

    यह वह समय था जब ऍंगरेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और शृंगार रस के काव्य पढकर फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे।

    मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके सीरी और फरहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लडाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले।

    उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे, 'बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ॠण के बोझ से दबे हुए हैं। लडकियाँ हैं, वे घास-फूस की तरह बढती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पडूँ! अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो।

    'नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।

    'इस विषय में विवेक की बडी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है। लेकिन बेगरज को दाँव पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बाँध लो यह मेरी जन्म भर की कमाई है।

    इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल खडे हुए। इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुध्दि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलम्बन ही अपना सहायक था। लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था। वृध्द मुंशीजी को सुख-संवाद मिला तो फूले न समाए। महाजन कुछ नरम पडे, कलवार की आशालता लहलहाई। पडोसियों के हृदय में शूल उठने लगे।

    जाडे के दिन थे और रात का समय। नमक के सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुंशी वंशीधर को यहाँ आए अभी छह महीनों से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोडे समय में ही उन्होंने अपनी कार्यकुशलता और उत्तम आचार से अफसरों को मोहित कर लिया था। अफसर लोग उन पर बहुत विश्वास करने लगे।

    नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था। दारोगाजी किवाड बंद किए मीठी नींद सो रहे थे। अचानक ऑंख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाडियों की गडगडाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनाई दिया। उठ बैठे।

    इतनी रात गए गाडियाँ क्यों नदी के पार जाती हैं? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है। तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया। वरदी पहनी, तमंचा जेब में रखा और बात की बात में घोडा बढाए हुए पुल पर आ पहुँचे। गाडियों की एक लम्बी कतार पुल के पार जाती देखी। डाँटकर पूछा, 'किसकी गाडियाँ हैं।

    थोडी देर तक सन्नाटा रहा। आदमियों में कुछ कानाफूसी हुई तब आगे वाले ने कहा-'पंडित अलोपीदीन की।

    'कौन पंडित अलोपीदीन?

    'दातागंज के।

    मुंशी वंशीधर चौंके। पंडित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे। लाखों रुपए का लेन-देन करते थे, इधर छोटे से बडे कौन ऐसे थे जो उनके ॠणी न हों। व्यापार भी बडा लम्बा-चौडा था। बडे चलते-पुरजे आदमी थे। ऍंगरेज अफसर उनके इलाके में शिकार खेलने आते और उनके मेहमान होते। बारहों मास सदाव्रत चलता था।

    मुंशी ने पूछा, 'गाडियाँ कहाँ जाएँगी? उत्तर मिला, 'कानपुर । लेकिन इस प्रश्न पर कि इनमें क्या है, सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का संदेह और भी बढा। कुछ देर तक उत्तर की बाट देखकर वह जोर से बोले, 'क्या तुम सब गूँगे हो गए हो? हम पूछते हैं इनमें क्या लदा है?

    जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोडे को एक गाडी से मिलाकर बोरे को टटोला। भ्रम दूर हो गया। यह नमक के डेले थे।

     

    पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार, कुछ सोते, कुछ जागते चले आते थे। अचानक कई गाडीवानों ने घबराए हुए आकर जगाया और बोले-'महाराज! दारोगा ने गाडियाँ रोक दी हैं और घाट पर खडे आपको बुलाते हैं।

     

    पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मीजी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं नचाती हैं। लेटे ही लेटे गर्व से बोले, चलो हम आते हैं। यह कहकर पंडितजी ने बडी निश्ंचितता से पान के बीडे लगाकर खाए। फिर लिहाफ ओढे हुए दारोगा के पास आकर बोले, 'बाबूजी आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ कि गाडियाँ रोक दी गईं। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए।

    वंशीधर रुखाई से बोले, 'सरकारी हुक्म।

    पं. अलोपीदीन ने हँसकर कहा, 'हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधर से जाएँ और इस घाट के देवता को भेंट न चढावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था। वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ प्रभाव न पडा। ईमानदारी की नई उमंग थी। कडककर बोले, 'हम उन नमकहरामों में नहीं है जो कौडियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपको कायदे के अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुर्सत नहीं है। जमादार बदलूसिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूँ।

    पं. अलोपीदीन स्तम्भित हो गए। गाडीवानों में हलचल मच गई। पंडितजी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पडीं। बदलूसिंह आगे बढा, किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड सके। पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया कि यह अभी उद्दंड लडका है। माया-मोह के जाल में अभी नहीं पडा। अल्हड है, झिझकता है। बहुत दीनभाव से बोले, 'बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएँगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोडे ही हैं।

    वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा, 'हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते।

    अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन-ऐश्वर्य की कडी चोट लगी। किन्तु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले, 'लालाजी, एक हजार के नोट बाबू साहब की भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।

    वंशीधर ने गरम होकर कहा, 'एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।

    धर्म की इस बुध्दिहीन दृढता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुँझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल-उछलकर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हजार तक नौबत पहुँची, किन्तु धर्म अलौकिक वीरता के साथ बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भाँति अटल, अविचलित खडा था।

    अलोपीदीन निराश होकर बोले, 'अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।

    वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलूसिंह मन में दारोगाजी को गालियाँ देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढा। पंडितजी घबडाकर दो-तीन कदम पीछे हट गए। अत्यंत दीनता से बोले, 'बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने का तैयार हूँ।

    'असम्भव बात है।

    'तीस हजार पर?

    'किसी तरह भी सम्भव नहीं।

    'क्या चालीस हजार पर भी नहीं।

    'चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी असम्भव है।

    'बदलूसिंह, इस आदमी को हिरासत में ले लो। अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।

    धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकडियाँ लिए हुए अपनी तरफ आते देखा। चारों ओर निराश और कातर दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद मूर्छित होकर गिर पडे।

    दुनिया सोती थी पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृध्द सबके मुहँ से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया।

    पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ और साकार यह सब के सब देवताओं की भाँति गर्दनें चला रहे थे।

    जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकडियाँ, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गर्दन झुकाए अदालत की तरफ चले तो सारे शहर में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित ऑंखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा।

    किंतु अदालत में पहुँचने की देर थी। पं. अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञा पालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना मोल के गुलाम थे।

    उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ से दौडे। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने यह कर्म किया, बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए? ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आए? प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था।

    बडी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में यध्द ठन गया। वंशीधर चुपचाप खडे थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किंतु लोभ से डाँवाडोल।

    यहाँ तक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओर कुछ खिंचा हुआ दीख पडता था। वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहाँ पक्षपात हो, वहाँ न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो गया।

    डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पं. अलोपीदीन के विरुध्द दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। वह एक बडे भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोडे लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो। यद्यपि नमक के दरोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं है, लेकिन यह बडे खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झेलना पडा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक के मुकदमे की बढी हुई नमक से हलाली ने उसके विवेक और बुध्दि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए।

    वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पडे। पं. अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले। स्वजन बाँधवों ने रुपए की लूट की। उदारता का सागर उमड पडा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी।

    जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर उनके ऊपर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए। किंतु इस समय एक कटु वाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्ज्वलित कर रहा था।

    कदाचित इस मुकदमे में सफल होकर वह इस तरह अकडते हुए न चलते। आज उन्हें संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वत्ता, लंबी-चौडी उपाधियाँ, बडी-बडी दाढियाँ, ढीले चोगे एक भी सच्चे आदर का पात्र नहीं है।

    वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुँचा। कार्य-परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यथित घर को चले। बूढे मुंशीजी तो पहले ही से कुडबुडा रहे थे कि चलते-चलते इस लडके को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के तगादे सहें, बुढापे में भगत बनकर बैठें और वहाँ बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे। लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे ऍंधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दिया जलाएँगे। खेद ऐसी समझ पर! पढना-लिखना सब अकारथ गया।

    इसके थोडे ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस दुरावस्था में घर पहुँचे और बूढे पिताजी ने समाचार सुना तो सिर पीट लिया। बोले- 'जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड लूँ। बहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे। क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर वहाँ से टल न जाता तो अवश्य ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता। वृध्द माता को भी दु:ख हुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएँ मिट्टी में मिल गईं। पत्नी ने कई दिनों तक सीधे मुँह बात तक नहीं की।

    इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया। सांध्य का समय था। बूढे मुंशीजी बैठे-बैठे राम नाम की माला जप रहे थे। इसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिए बैलों की जोडी, उनकी गर्दन में नीले धागे, सींग पीतल से जडे हुए। कई नौकर लाठियाँ कंधों पर रखे साथ थे।

    मुंशीजी अगवानी को दौडे देखा तो पंडित अलोपीदीन हैं। झुककर दंडवत् की और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे- 'हमारा भाग्य उदय हुआ, जो आपके चरण इस द्वार पर आए। आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन सा मुँह दिखावें, मुँह में तो कालिख लगी हुई है। किंतु क्या करें, लडका अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्या मुँह छिपाना पडता? ईश्वर निस्संतान चाहे रक्खे पर ऐसी संतान न दे।

    अलोपीदीन ने कहा- 'नहीं भाई साहब, ऐसा न कहिए।

    मुंशीजी ने चकित होकर कहा- 'ऐसी संतान को और क्या कँ?

    अलोपीदीन ने वात्सल्यपूर्ण स्वर में कहा- 'कुलतिलक और पुरुखों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें!

    पं. अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा- 'दरोगाजी, इसे खुशामद न समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की जरूरत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार-बल से अपनी हिरासत में लिया था, किंतु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में आया हूँ। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पडा किंतु परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूँ।

    वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया, किंतु स्वाभिमान सहित। समझ गए कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आए हैं। क्षमा-प्रार्थना की चेष्टा नहीं की, वरन् उन्हें अपने पिता की यह ठकुरसुहाती की बात असह्य सी प्रतीत हुई। पर पंडितजी की बातें सुनी तो मन की मैल मिट गई।

    पंडितजी की ओर उडती हुई दृष्टि से देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शर्माते हुए बोले- 'यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए। मैं धर्म की बेडी में जकडा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आज्ञा होगी वह मेरे सिर-माथे पर।

    अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा- 'नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार की थी, किंतु आज स्वीकार करनी पडेगी।

    वंशीधर बोले- 'मैं किस योग्य हूँ, किंतु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी।

    अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले- 'इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने हस्ताक्षर कर दीजिए। मैं ब्राह्मण हूँ, जब तक यह सवाल पूरा न कीजिएगा, द्वार से न हटूँगा।

    मुंशी वंशीधर ने उस कागज को पढा तो कृतज्ञता से ऑंखों में ऑंसू भर आए। पं. अलोपीदीन ने उनको अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियत किया था। छह हजार वाषक वेतन के अतिरिक्त रोजाना खर्च अलग, सवारी के लिए घोडा, रहने को बँगला, नौकर-चाकर मुफ्त। कम्पित स्वर में बोले- 'पंडितजी मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपकी उदारता की प्रशंसा कर सकूँ! किंतु ऐसे उच्च पद के योग्य नहीं हूँ।

    अलोपीदीन हँसकर बोले- 'मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है।

    वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा- 'यों मैं आपका दास हूँ। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। किंतु मुझमें न विद्या है, न बुध्दि, न वह स्वभाव जो इन त्रुटियों की पूर्ति कर देता है। ऐसे महान कार्य के लिए एक बडे मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्य की जरूरत है।

    अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले- 'न मुझे विद्वत्ता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न कार्यकुशलता की। इन गुणों के महत्व को खूब पा चुका हूँ। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया जिसके सामने योग्यता और विद्वत्ता की चमक फीकी पड जाती है। यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए, दस्तखत कर दीजिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला, बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे।

    वंशीधर की ऑंखें डबडबा आईं। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और श्रध्दा की दृष्टि से देखा और काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए।

    अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले लगा लिया

    मंगलवार, मई 26, 2020

    नमक ( रज़िया सज्जाद जहीर )


    1 सिख बीवी के प्रति सफिया के आकर्षण का क्या कारण था?
    उत्तर संकेत -  सिख बीबी साफिया की माँ की तरह दिखती थी |उसी की तरह पहनावा और नैन नख्न्स थे |इसी समानता के कारण उनके प्रति आकर्षित थी |
    2  सफिया के भाई ने नमक की पुड़िया ले जाने से क्यों मना कर दिया

    या सफिया के भाई ने सफिया को क्या चेतावनी दी?
    उत्तर संकेत -  यह गैर कानूनी था और कस्टम में पकड़े जाने का डर था
    3  सफिया और उसके भाई के विचारों में क्या अंतर था? नमक पाठ के आधार पर बताइए ।
    या कस्टम वालों के संबंध में  सफिया और उसके भाई के क्या विचार  थे ?
    उत्तर संकेत - साफिया का भाई व्यावहारिक था जबकि साफिया भावुक थी/ साफिया के भाई के अनुसार कस्टम वाले कानून के अनुसार कार्य करेंगे जबकि साफिया के अनुसार में इंसानियत के अनुसार कार्य करेगे |
    4 . नमक की पुड़िया ले जाने के संबंध में सफिया के मन में क्या द्वंद्व था?
    पाकिस्तान कानून के अनुसार नमक भारत ले जाना गैर क़ानूनी था, इस कारण पकड़ें जाने का डर था| परन्तु  लाहौरी नमक ले आने वादा उसने सिख बीबी से किया था इस कारण न ले जाना वादाखिलाफी होती |चोरी से ले जाना नहीं चाहती थी क्योंकि  मुहब्बत का तोहफ़ा चोरी से ले जाना एक तरह से अपराध था |    

    5  सिख बीबी  ने यह क्यों कहा कि उनका वतन तो लाहौर है ?
    उत्तर संकेत -सिख बीबी की जन्म भूमि लाहौर थी|वहाँ उन्होंने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष बिताया था |
    सफिया का सामान जब कस्टम जांच के लिए जाने लगा तो  सफ़िया की क्या प्रतिक्रिया हुई ?
    उत्तर संकेत -जब सफिया का सामान कस्टम जाँच के लिए जाने लगा तो उसे एक झिरझिरी सी आई ,मुहब्बत का तोहफा चोरी से ले जाना अच्चा नहीं लगा  और उसने एकदम निर्णय किया कि वह नमक को चोरी से नहीं ले जाएगी।उसने कीनू की टोकरी से नमक की पुड़िया निकाली और हैं हैंडबैग में रखकर कस्टम अधिकारी के पास ले गई।

      7  दोनों कस्टम अधिकारीयों का व्यवहार साफिया के प्रति कैसा था ? उससे उन्हें सहानुभूति क्यों थी |
    उत्तर संकेत -दोनों  कस्टम अधिकारीयों ने उनके साथ सद्भावनापूर्ण व्यवहार किया और कानून के अनुसार गलत होते हुए भी मानवता और इंसानियत के नाते नमक ले जाने में मदत करते है |इस प्रकार के व्यव्हार से यह साबित हो जाता है कानून और नियमों से उपर मानवता होती है  

    अटारी में साफिया को समझ में आया ही नहीं कि कहा से लाहौर ख़त्म हुआ और कहा से अमृतसर आरम्भ हो गया |ऐसा क्यों होता है ?
      उत्तर संकेत -दोनोँ की एक सीमा थी दोनों का रहन-सहन भाषा एक सी थी और तो और गाली भी एक जैसी थी 

    9   सफिया कस्टम के जँगले से निकलकर दूसरे प्लेटफार्म पर आ गई और वे वहीं खड़े रहे- इस वाक्य में हुए वे शब्द का प्रयोग किसके लिए किया गया है?
    10  . नमक ले जाने यह बारे में सफिया के मन में उठे द्वंद्वों के आधार पर  उसकी चारित्रिक विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
    11  नमक कहानी किस बात का प्रतीक है ?इस कहानी में वतन शब्द का भाव किस प्रकार दोनों तरफ के लोगों को भावुक करता है ?
    12  सफिया यदि छिपाकर नमक ले जाने का प्रयत्न करती तो क्या होता है? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
    13    नमक पाठ हो पढ़ते हुए आपके मन में  क्या- क्या प्रश्न उठते हैं?
    14  .'मानचित्र पर एक लकीर खींच देने भर से जमीन और जनता बँट जाती है' उचित तर्कों एवं उदाहरणों से इसकी पुष्टि करें।
    15 जब सखिया अमृतसर पुल पर चढ़ रही थी तो कस्टम अधिकारी निचली सीढ़ी के पास सिर झुकाए क्यों खड़े थे ?
    16  लाहौर अभी तक उनका वतन है और देहली मेरा या मेरा वतन ढ़ाका है- जैसे उद्गार किस सामाजिक यथार्थ का संकेत करते हैं ?






    शनिवार, मई 02, 2020

    अद्भुत रस


    आश्चर्य जनक चकित कर देने दृश्यों के कारण वर्णन उपन्न विस्मय-भाव की परिपक्वावस्था को अद्भुत रस कहते है |

    हरि ने भीषण हुंकार किया
     अपना स्वरुप विस्तार किया |डगमग-डगमग दिग्गज डोले
    भगवान कुपित हो कर बोले 
    जंजीर बढ़ा कर साध मुझे
    हाँ हाँ दुर्योधन !बांध मुझे
    यह देख गगन मुझ में लय है
    यह देख पवन मुझे में लय है
    मुझे में विलीन झंकार सकल
    मुझे में लय है संसार सकल


    देख यशोदा शिशु के मुख में, सकल विश्व की माया |
    क्षणभर को वह बनी अचेतन, हिल न सकी कोमल काया ||


    हो पूर्ण जब तक पार्थ प्रति प्रभु का कथन ऊपर कहा ||
    तब तक महा अद्भुत हुआ यह एक कौतुक सा,अहा |मार्त्तंड अस्ताचल निकट घनमुक्त






    शुक्रवार, मई 01, 2020

    वीभत्स रस


    घृणा उत्पन्न करने वाले अमांगलिक,अश्लील दृश्यों को देख कर दृश्यों के प्रति जुगुप्सा का  भाव परिपुष्ट हो कर वीभत्स रस उत्पन्न करता है |

    सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत |
    खीचत जिभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर धारत ||
    गीध जांघि को खोदि-खोदि कै मांस उघारत |
    स्वान अंगुरिन काटी-काटी कै खात  विदारत ||


    ओझरी की झोरी काँधे,आंतनि की सेल्ही बांधें,
    मुंड के कमण्डलु,खपर किये कोरि कै
    जोगिनी झुदुंग झुण्ड-झुण्ड बनी तापसी सी
     तीर-तीर बैठी सो समर सरि खोरि कै||
    सोनित सो सानि सानि गूदा खात सतुआ से
    प्रेत एक पियत बहोरि घोरि-घोरि कै |
    तुलसी बैताल भूत साथ लिए भूतनाथ
      हेरि हेरि हँसत है हाथ- हार जोरि कै |


    आँखे निकाल उड़ जाते,क्षण भर उड़ क्र आ जाते |
    शव जीभ खीचकर कौवे,चुभला-चुभला कर खाते|
    भोजन में श्वान लगे मुरदे थे भू पर लेटे |
    खा मांस चाट लेते थे,चटनी सम बहते बेटे |




    Bhayanak Ras/भयानक रस


    Bhayanak Ras/भयानक रस 

    इस में भयोत्पादक विषयों का वर्णन होता है |इसका स्थाई भाव भय है |किसी भयानक दृश्य को देखने के कारण  उपन्न भय जब अपनी परिपक्वावस्था को प्राप्त करता है यो उसे भयानक रस कहते है |

    एक ओर अजगरहिं लखि,एक ओर मृगराय|
    विकल बटोही बीच ही,परयो मूरछा खाय ||

    बालधी विसाल,विकराल,ज्वाला-जाल मानौ ,लंक लीलिबों को काल रसना पसारी है |
    कैंधों व्योम बिध्यिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,वीर रस वीर तरवारि सी उधारी |


    समस्त सर्पों संग श्याम ज्यों कढ़े
           कलिन्द की नन्दिनी की सुअंक से
    खड़े किनारे जितने मनुष्य थे
       सभी महाशंकित भीत हो उठे ||हुए कईमूर्च्छित घोर त्रास से
    कई भगे मेदिनि में गिरे कई |
    हुई यशोदा अति ही प्रकम्पिता ब्रजेश भी व्यस्त समस्त हो गये||


      चली आ रही फेन उगलती,फन फैलाए व्यालों सी
    अखिल यौवन के रंग उभार हड्डियों के हिलाते कंकाल
    कचो के चिकने काले ,व्याल,केचुल कांस,सिबार


    Bhayanak Ras/भयानक रस 


    लपट कराल जवाल-जाल-माल दहूँ दिसि ,
    धूम अकुलाने,पहिचानै कौन काहि रे ||
    पानी को ललात,बिललात,जरे गात,
    परे पाइमालतू भ्रात,तू निबाहि रे||
    प्रिया तू पराहि नाथ नाथ तू पराहि बाप.बाप तू पराहि पूत पूत पराहि रे
    तुलसी बिलोकि गोल ब्याकुल बिहालक है
    लेहि दससीस अब बीस चख   चाहि रे |